श्री गोवर्द्धन के दिव्याकर्षण दिक्चालन सूची


श्री गोवर्द्धन के दिव्याकर्षण


 मानसी गंगा श्री हरिदेव, गिरवर की परिक्रमा देउ।

कुण्ड-कुण्ड आचमन लेउ, अपनौ जनम सफल करि लेउ।।


 श्री गोवर्द्ध्रन धाम दिव्य गोलोक धाम है। महर्षि व्यासजी ने तो श्रीमद्भागवत में इसे आदि वृन्दावन बताया है। गोवर्द्धन गिरिराज स्वयं भगवान कृष्ण स्वरूप है। इसी के मध्य स्थित श्री गिरिराज पर्वत गोवर्द्धन धाम का ऐसा आकर्षण है कि देश के प्रत्येक कौने से, विदेशों से प्रतिवर्ष यहाँ लाखों भक्त, संत, नर-नारी, दर्शनार्थ, परिक्रमार्थ आते रहते हैं। इस धाम के विशेष दिव्याकर्षण हैं, जिनके कारण यह धाम पूज्य, वन्दनीय, दर्शनीय, श्रद्धास्पद एवं मन मोहक बना हुआ है। ये आकर्षण निम्नांकित हैः-

मुखारबिंदु श्री गिरिराज महाराजः- श्री गिरिराज महाराज तो प्रमुख दिव्य आकर्षण हैं ही जिनके कारण यह गोवर्धन धाम मानय व पूज्य है। यहाँ श्री गिरिराज महाराज के दो प्रमुख मंदिर है। यहाँ श्री गिरिराज जी के मंदिर में मुखारबिंदु के दर्शन, दूध, भोग, चढ़ावा, आरती, पूजा सेवा ये भक्ति पूरक कार्य प्रत्येक दर्शनार्थी एवं नगरवासियों को अनिवार्य से हो गये हैं। गोवर्धन में दो प्रमुख मंदिर सर्वमान्य हैं। दोनों के श्री विग्रह रूप अलग-अलग होते हुए भी बड़े मनमोहक हैं। एक तो दसविसा में मानसी गंगा के तट पर तथा दूसरा दानघाटी पर विराजमान है। इन दोनों मुखारबिंदु मंदिरों में श्री गिरिराज जी के भव्य दिव्य दर्शन अलौकिक श्रृँगार में नित्य प्रति होते हैं। परिक्रमा लगाकर, मानसी गंगा में स्नान कर भक्तजन यहाँ दूध-भोगादि चढ़ाकर, पूजा एवं दर्शन कर मनोकामनाएं पूर्ण कर हर्षित होते हैं।
गोवर्द्धन धाम की भव्य रमणीकताः- गोवर्द्धन धाम बड़ा अनुपम व रमणीक है। इसको बाहरी सेठों, धनी मानी भक्तों व राजा महाराजाओं एवं संत-महात्माओं ने मंदिर, धर्मशालाएं, आश्रम, महल, छतरी एवं कुण्डादि बनवाकर सुसज्जित किया है। इन्हीं सब निर्माण कार्यों से गोवर्द्धन धाम भव्यता को प्राप्त हुआ है। श्री गिरिराज जी की श्रद्धा एवं भक्ति भावना से ओतप्रोत भरतपुर राज घराने की यह समाधि स्थ्ली रही है।
भरतपुर के राजाओं ने इस धाम में अनेक महल, मंदिर, र्ध्मशालाएं तथा छतरियों का निर्माण कराकर मनोहारी किया है। मानसी गंगा के पूर्वोŸार में विशाल एवं भव्य छतरियाँ बनी हुई हैं जो तत्कालीन कला, वास्तुकला, एवं पच्चीकारी के अद्भुत दर्शन देखने को मिलते है। कुसुम सरोवर व उस पर स्थित छतरियाँ भी दिव्याकर्षण करती है। गोवर्धन में अनेक मंदिरव महल भरतपुर राजघराने द्वारा निर्मित विद्यमान है।
खास महल, महल बदनसिंह, महल हंसारानी आदि बड़े विशाल एवं भव्य हैं लेकिन आज अपनी भव्यता को निरन्तर खोते जा रहे हैं।
मंदिर श्री हरिदेव जीः- श्री हरिदेव जी का मंदिर मानसी गंगा के तटपर दक्षिण पश्चिमी भाग में मनसादेवी के समीप स्थित है। मनसादेवी, मानसीगंगा तथा हरिदेव जी ये तीनों दिव्याकर्षण पास-पास ही विराजमान है।
श्री हरिदेव जी के मंदिर के श्री विग्रह का प्राकट्य संत श्री कशवाचार्य जी द्वारा किया गया था। तत्पश्चात् इस मंदिर को निर्माण सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक राजा टोडरमल ने कराया था और औरंगजेब ने इसे ध्वस्त किया था इसके बाबजूद आज भी यह दिव्याकर्षण का प्रमुख केन्द्र है। शास्त्रों की ऐसी मान्यता है कि यदि परिक्रमा करने के बाद श्री हरिदेव जी के दर्शन न किये जाय तो परिक्रमा का फल अधूरा रह जाता है।
मानसी गंगाः-श्री गिरिराज गोवर्धन के हृदय-स्थल पर विराजमान मानसी गंगा परिक्रमा का अत्यन्त पवित्र व महत्पपूर्ण स्थल है, जिसे भगवान श्रीकृष्ण का मुकुट मुखारबिंद कहते हैं। मानसी गंगा के विषय में पौराणिक उल्लेख है कि मथुरा के राजा कंस ने कृष्ण को मारने के लिए अनेक राक्षस भेजे। कृष्ण उनका वध करते रहे। इस श्रृंखला में कंस ने वच्छासुर राक्षस को भेजा। वह बछड़ा बनकर गायों में घुस गया और उन्हें मारने लगा। कृष्ण उसको पहचान गये और उस राक्षस का वध कर दिया। जब वध कर दिया तो ग्वाल-बाल कहने लगे कि अब तुम अपवित्र हो तुमने हत्या की है अतः अब गंगा स्नान करके आओ, तभी हम बात करेंगे। कृष्ण कन्हैया ने तुरन्त योगमाया स्वरूपी वंशी की मधुर-मधुर घ्वनि छेड़ दी जिसको सुनकर समस्त ब्रजवासी भाव विभोर हो गये। देखते ही देखते जहां कृष्ण खड़े थे, वहाँ एक जल से भरा सरोवर तैयार हो गया। सभी तीर्थ तो भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन को आतुर रहते हैं फिर इनके अभिषेक करने में स्वयं को धन्य मानते हैं, उसमें तो गंगा मैया तो वैसे भी श्रीकृष्ण की चरण दासी हैं, तुरन्त प्रकट होकर अपने आराध्य को पवित्र किया। चूँकि श्रीकृष्ण ने इस सरोवर को अपने मन से प्रकट किया है अतः इसका नाम मानसी गंगा हुआ। इसमें स्वयं भगवान व ग्वालों ने स्नान किया है अतः इसे पाप विनाशिनी कहते हैं। कहा जाता है कि जो व्यक्ति इसें स्नान करता है वह समस्त पाप मुक्त होकर गोलोक धाम प्राप्त करता है।
मानसी गंगा का प्राकट्य कार्तिक वदी अमावस्या अर्थात् दीपावली के दिन हुआ था। अतः इस पवित्र जन्म दिवस को देश के असंख्य नर-नारी दीपदान करके मनाते हैं। यह दिन इनका पुनीत माना जाता है कि दीपदान करने के लिए अर्द्धरात्रि के समय हजारों वर्षों से तपस्यारत साधु-संत, महात्मा लोग अपनी गुफा और कन्दराओं से निकल कर आते हैं जिनके दर्शन विरले लोगों को ही होते हैं। दीपदान के समय, मानसी गंगा के किनारे ऐसी शोभा लगती है मानो असंख्य सितारे झिलमिला रहे हों। दीप-ज्योति का प्रतिबिम्ब मानसी गंगा में बहुत ही सुन्दर लगता है। पौराणिक उल्लेख के अनुसार मानसी गंगा का प्राकट्य तो श्रीकृष्ण ने किया परन्तु इसकी आज की पहचान व व्यवस्थित रूप कृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ ने दिया। बाद में मानसी गंगा के घाटों को पक्के कराने का कार्य जयपुर के राजा मानसिंह ने किया तथा इन घाटों का पुनः जीर्णोद्धार 1960 ई0 में वुन्दावनवासी सेठ हरगुलाल ने कराया था।
श्री मनसादेवी का मंदिरः- श्री मनसादेवी गोवर्धन धाम में अति प्राचीन देवी है। अष्टभुजा धारिणी, सिंह वाहिनी माँ जगदम्बा मनसादेवी के रूप में मानसी गंगा के दक्षिण पश्चिमी तटपर विराजमान हैं। इसके दर्शन भव्य, सुखम आकर्षक एवं मनोरथ पूरक है। कहते है कि जब भगवान श्री कृष्ण ने श्री गिरिराज पर्वत को अपनी अंगुली पर उठाया था तो माँ यशोधा ने अपनी कुल देवी को लाला के रक्षार्थ आवाहन किया था, क्योंकि मनसा देवी उनकी कुल देवी थीं।
श्री चक्र तीर्थ (चक्रेश्वर महादेव)ः- श्री गोवर्धनधाम में मानसी गंगा के पूर्वोŸारी तट पर श्री चक्रेश्वर महादेव का मंदिर है इस पावन स्थल को चक्रतीर्थ के नाम से भी पुकारते है। यह ब्रज के प्रमुख महादेवों में से मुख्य हैं। यहाँ पर श्री शिवजी का विग्रहरूप का दर्शन अति दिवयाकर्षण करने वाला है। इसी स्थान पर ही महाप्रभु वल्लभाचार्य जी की बैठक तथा गौरांग महाप्रभु का मंदिर एवं शेष सनातन जी की को भजन साधना स्थली है। यहाँ अनेक भक्त एवं संत भी साधना करते हैं। यहीं से मुड़िया निकलती है। मुड़िया पूनौ के पर्व का यही स्थल श्रोत है।
मंदिर श्री नृःसिंह भगवान, चकलेश्वर रोड, गोवर्धन (मथुरा)
पवि़ाणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
र्धसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे।।
सतयुग में भक्त प्रह्लादादि को असहनीय यातनाएँ दैत्यराज हरिण्यकशिपु के द्वारा दी जाने लगी। तब अकारण दया द्रवित होने वाले करूणा वरूणालय श्रीहरि से यह देखा नहीं गया। अपने विरद को सँभालते हुए भक्त प्रह्लाद की रक्षार्थ एवं आतातायी दैत्य हरिण्यकशिपु को मारने के लिए भगवान विष्णु के चौथे अवतार में नृःसिंह रूप लेकर राज सभा के मध्य बने खम्बे से अपने अनन्य भक्त प्रह्लाद की इच्छा को सर्वोपरि करते हुये प्रकट हो गये। मेघ गर्जन तुल्य गर्जना करते हुए युद्ध के लिये दैत्यराज को ललकारा। परिणामतः दोनों में धमासान युद्ध हुआ। ब्रह्माजी के द्वारा दिये गये वादानों के अनुसार दैत्यराज को याद दिलाते हुए उसका अपने नाखूनों से उदर फाड़ते हुए वध कर दिया। श्री हरि का वही विकराल स्वरूप श्री नृःसिंह जी का विग्रह श्रीधाम गोवर्धन के चकलेश्वर मार्ग पर कनक भवन के पूर्व दिशि मार्ग पर मन्दिर स्थित है। श्री नृःसिंह जी के मन्दिर का निर्माण कराकर ठाकुर जी की प्रतिष्ठा करने वाले स्वतंत्रता सैनानी पं0 भँवर सिंह शर्मा जी ‘‘जैमन’’ हैं। भगवान श्री नृःसिंह जी लाल-लाल नेत्रों से युक्त विकराल दहाड़ने की मुद्रा में मुखवाये हुए दैत्य राज हरिण्यकशिपु को अपनी जाँघों पर रखे तीखे नाखूनों से उसका उदर विदारते हुए वध करने की मुद्रा में भक्तों को दर्शन दे रहे हैं। दाहिनी ओर भक्तराज प्रह्लाद जी हाथ जोड़े खड़े हुए हैं तथा दाँयी ओर इस मंदिर की स्थापना के समय जमीन से स्वयं प्रगट होने वाले श्री गिरिराज महाराज विराजमान है। भगवान श्री नृःसिंह जी के अनन्य भक्त पं0 कैलाश चन्द्र मिश्रा ठाकुर जी की नित्य नियमानुसार सेवा-पूजा आरती आदि करते हैं। वर्ष के अन्य उत्सवों के साथ-साथ श्री नृःसिंह जयन्ती का उत्सव बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
इस मंन्दिर के निर्माण की प्रेरणा सिद्धसंत स्व0 पं0 बद्री नारायण जी (कृष्णकुटी वालों) की अभिलाषा की पूर्ति हेतु फाल्गुन शुक्ला पंचमी संवत् 2044 तदनुसार दिनांक- 22 फरवरी 1988 ई0 सोमवार को श्री नृःसिंह जी की प्रतिमा मंगाकर प्राण-प्रतिष्ठा करादी। कुछ कालोपरान्त आपने अपनी बृद्धावस्था के कारण शारीरिक शिथिलिता को ध्यान में रखते हुये भगवान नृःसिंह जी की सेवा-पूजा करने का दायित्व अपने ज्येष्ठ पुत्र ज्योतिष के क्षेत्र में (अनेकों स्वर्ण पदक एवं मानद उपाधियों से अलंकृत) ख्याति प्राप्त, रमल विशेषज्ञ पं0 कैलाश चन्द्र मिश्रा ‘‘आचार्य’’ को सौंप दिया। आपके संरक्षण में ही ‘‘श्री नृःसिंह रमल ज्योतिष शोध संस्थान (ट्रस्ट)’’ की स्थापना की गयी। इसी शोध संस्थान से ‘‘श्री गिरिराज ज्योति’’ नामक त्रैमासिक पत्रिका भी प्रकाशित हो रही है और निःशुल्क ज्योतिष शिक्षा जिज्ञासु छात्रों को प्रदान की जाती है। इसी संस्थान में रमल ज्योतिष के माध्यम से पराविज्ञान की सहायता से जनकल्याणार्थ शोध कार्य किया जा रहा है जो आज ‘‘श्री लक्ष्मी नृःसिंह नवग्रह वाटिका’’ लोकमणि विहार, राधाकुण्ड परिक्रमा मार्ग, गोवर्धन में आपके दर्शनार्थ/अवलोकनार्थ/सर्वसंकट निवारणार्थ स्थापित हो चुकी है। जिसमें आप देवदोष, पितृदोष, कालसर्प दोष, नवग्रह शांति के साथ-साथ अकस्मात् आये संकट से मुक्ति हेतु पूजा करने से श्री गिरिराज महाराज और श्री नृःसिंह भगवान की कृपा से शाघ की कार्य सिद्धि होती है।
यह श्री नृःसिंह रमल ज्योतिष शोध संस्थान आज सम्पूर्ण भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में भी अपनी पहचान वना चुका है।


 				यं यं चिन्तयते कामं, तं तं प्राप्नोति निश्चितम्।।
(मनुष्य श्री नृःसिंह भगवान की आराधना जिन जिन कार्यों को सोच कर करता है उन्हें अवश्य ही प्राप्त कर लेता है।)
!! बोलिए श्री नृःसिंह भगवान की जय। !!

‘‘श्री लक्ष्मी नृःसिंह नवग्रह वाटिका’’ लोकमणि विहार, राधाकुण्ड परिक्रमा मार्ग, गोवर्धन में आपके दर्शनार्थ/अवलोकनार्थ/सर्वसंकट निवारणार्थ स्थापित हो चुकी है। जिसमें आप देवदोष, पितृदोष, कालसर्प दोष, नवग्रह शांति के साथ-साथ अकस्मात् आये संकट से मुक्ति हेतु पूजा करने से श्री गिरिराज महाराज और श्री नृःसिंह भगवान की कृपा से शाघ की कार्य सिद्धि होती है।
‘श्री गिरिराज धाम की पावन तलहटी’ में साक्षात् श्री गिरिराज महाराज/श्री नृःसिंह भगवान की प्रेरणानुसार पग-पग पर आप जैसे असंख्य विद्वानों का सहयोग/मार्गदर्षन का लाभ निरंतर प्राप्त होता रहा है। जिसकी परिणिति स्वरूप (पराविज्ञान, सम्पूर्ण ज्योतिषीय, वेदोक्त, पिरामिड, आयुर्वेद, प्राकृतिक रंग चिकित्सा, श्री अथर्ववेद, श्रीनृःसिंह पुराण, नारद पुराण, रावण संहिता, शारदातिलक/रुद्रयामल, भैरवदीप तंत्र, मंत्र, यंत्र, एवं आध्यात्म पर राष्ट्रीय/अंर्तराष्ट्रीय 1000 से अधिक ज्योतिर्विद/विद्वानों के ज्ञानात्मक सहयोग) से अनेक विधाओं को अपने आप में संजोये हुये प्रथम बार ‘‘श्री लक्ष्मी नृःसिंह नवग्रह वाटिका, लोकमणि विहार, राधाकुण्ड परिक्रमा मार्ग, गोवर्धन (मथुरा) के प्रॉगढ़ में ‘‘श्री नृःसिंह शक्ति कुण्ड’’ स्वरूप में जनकल्याणार्थ पल्लवित हुआ है।


 ‘यस्यां वृक्षावनस्पत्या ध्रुवास्तिष्ठन्ति विश्वहा’। ।अथर्वेद।। 

इस नवग्रह वाटिका की स्थापना श्री अथर्वेद की इसी सूक्ति के आधार पर वेदी स्वरुप में की गयी है। इस वाटिका के प्रत्येक वृक्ष को ज्योतिष में वर्णित सर्वार्ध-सिद्धि योगों के अन्तर्गत की गयी है। इस वाटिका के मध्य में सूर्य का प्रतीक मंदार वृक्ष स्थापित है और इसके चारों तरफ चन्द्रमा का प्रतीक पलाश, मंगल का खैर, बुध का अपामार्ग, गुरू का पारसपीपल, शुक्र का गूलर, शनि का शमी, राहु का चन्दन और केतु का अश्वगंधा वृक्ष स्थापित किये गये हैं। ऐसा प्रतीत ही नहीं अपितु विश्वास होता है कि ग्रहों से पीड़ित व्यक्ति यहाँ आकर अवश्य ही शांति प्राप्त करेंगे और किंचित ग्रह प्रसन्नार्थ क्रिया करने पर ही वे विरोधी क्रूर ग्रह प्रसन्न हो लाभकारी दृष्टि अपनायेंगे। मुझे इन वृक्षों में दिव्यता का आभास इसी से होता है कि अनेकों कष्टों से पीड़ित व्यक्तियों को अल्प समय में ही लाभ होते हुए देखा गया है। इस नवग्रह वाटिका की सथापना करते समय इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि वृक्षों की दूरी अधिक न हो जाये क्योंकि मेरा ऐसा विश्वास है कि यदि किसी महापुरुष का हाथ यदि हमारे सिर के ऊपर रखा होगा तो हमारा संकट स्वतः ही नष्ट हो जावेगा। इसी कारण जिस समय ये वृक्ष अपनी दीर्घता को प्राप्त होगें तो आपस में समाहित हो जावेगें और इनके नीचे से प्रदक्षिणा करने वाले प्रत्येक भक्त को अपना आर्शीवाद प्रदान करेंगे जिससे उसका संकट दूर हो जावेगा। आईये इनकी पूजा करतें हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार हमारे नक्षत्र मण्डल को नौ ग्रहों में समाहित किया गया है।


 ऊँ ब्रह्मा मुरारि स्त्रिपुरान्तकारी, भानुः शशिः भूमिसुतो बुधश्च।
गुरूश्च शुक्रः शनि राहु केतवः, सर्वे ग्रहाः शांति करा भवन्तुः।।

सर्व प्रथम श्री गिरिराज महाराज का स्मरण करने के पश्चात्य श्री सूर्य देव को नमन करते हैं। तदोपरान्त श्री चन्द्र देव, श्री मंगल देव, श्री राहु देव, श्री वृहस्पति देव, श्री शनि देव, श्री बुध देव, श्री केतु देव, श्री शुक्र देव का स्मरण कर प्रदक्षिणा करें।
इस प्रदक्षिणा मार्ग में नवग्रह वाटिका के दक्षिण दिशा में ‘श्री नारद पुराण’ के अनुसार परमब्रह्म श्रीकृष्ण का वनस्पति रूप पीपल वृक्ष खड़ा हुआ है और निकट श्री बटुक भैरवदेव विराजमान हैं। जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा गीता के दशवे अध्याय के 26वें श्लोक में ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां’ कहकर ‘वृक्षों में पीपल वृक्ष में हूँ’ कहा गया है। जो साक्षात् भक्तों को आर्शीवाद प्रदान करते रहते हैं। इनका और श्री बटुक भैरव जी का आर्शीवाद प्राप्त करते हुये श्री नवग्रह वृक्षों की प्रदक्षिणा पूर्ण करते हुये आप परमब्रह्म के दशावतारों में से भक्तवत्सल श्री लक्ष्मीनरसिंह भगवान एवं श्री परशुराम जी का मंदिर है जिसमें भगवान परशुराम जी की स्थापना इस वाटिका के अनुरुप ही की गयी है। क्योंकि यही एक ऐसा अवतार है जो महलों में न रहकर सिर्फ वाटिका में ही निवास करता है और ग्रन्थों के अभिलेखानुसार भगवान परशुराम जी आज भी महेन्द्रगिरि पर तपस्यारत हैं। इस श्रीविग्रह का मुख स्वयं श्री परशुराम जी की प्रेरणा से ईशान कोण में रखा गया है। इसके साथ ही महर्षि श्री परशुराम जी के श्री विग्रह के पीछे आपको मेरे इष्ट श्री नृःसिंह भगवान के भव्य दर्शनों का लाभ प्राप्त होगा। इस मंदिर के परिक्रमा मार्ग में दीवालों पर लघु मंदिरों में नवग्रह सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु की प्रतिमाएँ स्थापित हैं। इन मंदिरों को उन देवताओं के ग्रह रंगों के अनुसार ही उनके मंदिरों का निर्माण कराया गया है। साथ ही उन ग्रहों के मंत्र एवं यंत्रों को भी पत्थर पर अंकित कराया है। जिससे इनकी मनोहारी दिव्यता देखते ही बनती है। मंदिर के पीछे कक्ष में ‘‘अखण्ड श्री गिरिराज ज्योति’’ (श्री गिरिराज ज्योति पत्रिका का प्रतीकात्मक) अखण्ड रूप से प्रज्ज्वलित है। जिसको शारदा तिलक, रुद्रयामल, श्री भैरव तंत्र के आधार पर जन कल्याणर्थ स्थापित किया गया। साथ ही यज्ञकुण्ड भी स्थित है। जहाँ जनकल्याणार्थ हवन होता ही रहता है। इसके साथ ही इस मंदिर के परिक्रमा मार्ग को यज्ञ/वेदी की तीन मेखला सफेद, लाल एवं काले रंगों से ग्रंथित कर हवन कुण्ड का स्वरुप दिया गया है क्योंकि प्रत्येक प्राणी हवनादि कर्म नहीं कर सकते? अतः इस मंदिर में की गयी पूजा से ही आपको हवन आदि कर्म का फल प्राप्त हो सके।
मेरा उद्देश्य आपको इस पत्र के माध्यम से इस दिव्य स्थल का मानसिक चिंतन कराना है। यदि आपने सहृदय से मानसिक चिंतन किया तो निश्चित ही आपको क्षणिक आनन्द की अनुभूति अवश्य ही होगी। यदि आपको आनन्द की अनुभूति होती है तो मुझे एक यज्ञ के फल के बराबर आनन्द की प्राप्ति होगी। ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है।
इसी के साथ ही ‘‘मेरी परिकल्पना’’ प्रातः स्मरणीय सद्गुरुदेव के आर्शीवाद, मेरे प्रभु श्री गिरिराज महाराज, श्रीनृःसिंह भगवान् की असीम कृपा आप सभी विद्वŸाजनों एवं दानदाताओं के सहयोग से साकार हो रही है।
!! बोलिए श्री नृःसिंह भगवान की जय। !!
गोवर्द्धन के पर्व एवं मेलेः- गोवर्धन धाम में दीपदान व गोवर्धन पूजा का महोत्सव, दीपावली पर्व पर मेले के रूप में प्रतिवर्ष अपार भीड़ द्वारा धूमधाम से सम्पन्न होता है।
आषाढ़ सुदी गुरूपूर्णिमा पर यहाँ का मुड़िया पूनौ (मिनी कुंभ/लक्खी मेला) का मेला प्रसिद्ध है। जो आषाढ़ सुदी दसमी से श्रावण कृष्णा दौज तक विशाल जन समूह की अपार भीड़ द्वारा परिक्रमा श्री गिरिराज महाराज के जयकारों के साथ लगाकर, मानसी गंगा में स्नान कर तदोपरान्त री गिरिराज जी की पूजा-अर्चना कर धूमधाम से भक्तिभावों सहित सम्पन्न होता है। अधिक मास (पुरूषोŸाम मास) में पूरे महीने सन्त-भक्तों, नर-नारियों की अपार भीड़ द्वारा परिक्रमा लगाने व दर्शन करने आती है। होली पश्चात् दौज से सम्वत्सर तक यहाँ हुरंगा उत्सव होते रहते हैं। जो यहाँ की साहित्य, संस्कृति एवं संगीत तथा नृत्य कला के साकार प्रतीक है।
यह धाम संत, भक्त, कवि, कोविदों, को साधना स्थली भी रही है।
यह श्री गोवर्धन धाम परम पावन, पूज्य एवं आराध्य है।


 !! बोलिए श्री नगिरिराज महाराज की जय। !!






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